सुमित व्यास/ बीकानेर। समय, काल, परिस्थितियों के साथ-साथ पत्रकारिता की परिभाषा भी बदलती जा रही है। उसका रूप, रंग और उद्देश्य ने भी करवट ली है। जिस पत्रकारिता का जन्म कभी ‘मिशन’ के तौर पर हुआ माना जाता था और जिसने अपनी महत्ता समाज़ की बुराइयों को जड से नष्ट करने के लिये स्थापित की थी वो आज अपनी उम्र के एक ऐसे पडाव पर आ पहुंची है जहां आगे खतरनाक खाई है और पीछे धकेलने वाले हजारों-हजार नये किंतु ओछे विचार। ये ओछे विचार ही आज की मांग बन चुके हैं। ऐसे विचार जिनमे स्वार्थगत चाटुकारिता निहित है, बे-ईमानी को किसी बेहतर रंग-रोगन से रोशन किया गया हैं और जिनमे ऐसे लोगों का वर्चस्व है जो अपनी सड़ी हुई मानसिकता को बाज़ार की ऊंची दुकानों में सजाये रखने का गुर जानते हैं। एक समय था जब पत्रकारिता से आम आवाम के हकों की लड़ाई लड़ी जाती थी इसका सुन्दर उदाहरण देखे तो बिजोलिया किसान आंदोलन है जो करीब 40 वर्षो तक चला और इस आंदोलन को जन जन तक पहुंचाने का काम गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने समाचार पत्र ”प्रताप” के द्वारा किया। पत्रकारिता ने भारत की आज़ादी में अपनी अहम भूमिका निभाई वो आज़ादी के बाद राजनीति, कारपोरेट या सेठ-साहूकारों के गलियारों में नाचती हुई दिख रही है। जहां यह फर्क करना दुश्वार हो गया है कि कौन पत्रकार है और कौन दलाल? या पत्रकारिता के भेष में दलाली ही दलाली? यदि इस रूप में पत्रकारिता है तो इसका दोष किसे दें? उन संपादकों को जिन्होंने सेठ-मालिकों की जुबान पर अपने विचार तय किये? या उन सेठ-मालिकों को जिन्होंने ऊंचे दाम में संपादक खरीदे? या ऐसे संपादकों को जिसने कभी अपने सहयोगियों को स्वच्छंद रहने, लिखने नहीं दिया। उन्हें हमेंशा अपने हित के लिये दबाव में रखा और कार्य करवाया? यह आम राय है कि संपादकीय सहयोगी चाहे कितना भी प्रतिभावान हो पर उसे अपने संपादक की खुशी के लिये कार्य करना होता है न कि अखबार या चैनल के लिये। और यदि सहयोगी विशुद्ध प्रतिभा का इस्तेमाल कर कोई बेहतर संपादन कार्य करना चाहता है तो संपादक द्वारा उसे अपने अहम और प्रतिष्ठा पर आघात मान लिया जाता है कि कैसे कोई अदना पत्रकार उन तक पहुंचे या उनसे अच्छा लिख सके। पेट और नौकरी की मज़बूरीवश सामान्य किंतु बेहद ऊर्जावान पत्रकार संपादकों के ओछे निर्णयों को भोगने, मानने के लिये बाध्य हो जाते हैं। या फिर नौकरी छोड़ कर इस दलदल से दूर। शुद्ध पत्रकारिता को चकनाचूर करने में इस रवैये ने भी अपनी अहम भूमिका निभाई है। इस देश में भी समाचार पत्रों का आधार धन हो रहा है। धन से ही वे निकलते हैं, धन से ही वे चलते हैं और बडी वेदना के साथ कहना पडता है कि उनमे काम करने वाले बहुत से पत्रकार भी धन की ही अभ्यर्थना करते हैं।” वर्तमान स्वरूप में पत्रकारिता पर जो लांछन या अंगुलिया उठाई जा रही है ये शायद इस धन लोभी कार्यप्रणाली का ही नतीजा है कि राजनेता से लेकर कार्यकर्ता तक व अन्य गोरख धंधो से जुड़े व्यापारी धनबल पर पत्रकारिता को महज अपने अंगुली पर नाचने वाली कठपुतली बना कर छोड़ दिया है। फिर से विचारो में सुधारकर पत्रकारिता की महत्ता को समझना जरूरी है नहीं तो इसका स्वरुप ही बदल जायेगा। हालात ये है कि छोटे शहरों में पत्रकारिता का तमगा लेकर पुलिस चालान बचाने का जरिया बन गया है तो बड़े शहरों में बड़े व्यापारियों और राजनेताओ से मार्केटिंग कर धन अर्जित करने का रास्ता पर जो आज़ादी के समय पत्रकारिता करने वाले पत्रकार थे वहीं स्वतंत्रता में निडरता से भागीदार बन जन हितों में कार्य करते थे।