अकस्मात करामात हो गई । चुनावी चौसर पर दांव लगने लगे। राजनीतिक पार्टियो ने अपने – अपने प्रत्याशी मैदान में उतारने की निमित्त सूचियों की झड़ी लगा दी। जिनके सूची में नाम नहीं हैं उनमें से अधिकांश लोगों को यकायक यकीन नहीं हुआ। उनका शेयर मार्केट का ग्राफ औंधा आ गिरा। अब ऐसे नेताजी के तेवर तीखे हैं। बगावत के स्वर बुलंदी पर लेते हुए अपने साथियों के साथ वे अपनी ही पार्टी के विरोध में कहीं प्रदर्शन कर रहे हैं, कहीं निर्दलीय मैदान में उतरने का ऐलान किया जा रहा है। पब्लिक तो सब जानती है । अब पब्लिश कहने से नहीं चूक रही कि चुनावों में जीतने वाले नेता कोई और एवं अपने इलाके में दौड़ दौड़ कर लोगों के काम कराने वाले नेता कोई और। जिनका चुनावों में पार्टी की अधिकृत सूची में कोई ओर न छोर! ठीक वैसे ही आरोप भी पार्टियों पर लगने लगे जैसे सरकारी नौकरियों के लिए चयन पर लगते रहते हैं।
पब्लिक जानती है, सफाई कर्मचारियों तक की भर्ती संतोषजनक नहीं मानी जाती तो शिक्षकों की हजारों की संख्या में हुई भर्तियों के बावजूद स्कूलों में विषय पढ़ाने वालों का अभाव रहता है। लेकिन ऐसी विडंबनाओं और विसंगतियों की अनदेखी करने वाले राजनीतिक दलों और नेताओं का कोई वास्ता नहीं रहता। श्रमिकों के हित की एक योजना बनी और पसीने से कमाई से योजना में अंशदान मजदूरों ने दिया मगर कुछ ही समय बाद योजना तब्दील कर दी गई… लोगों ने फिर अपने कागजात भी अपडेट किए। उन पर क्या बीतत रही है? किसी नेता को इससे कोई मतलब नहीं। लेकिन उन्हीं की पार्टियों ने उन्हें दरकिनार कर टिकट किसी दूसरे नेता को थमा दी तो आ गए तैश में । कृषि पर अवलंबित रहे हमारे भारत में यह भी तो सच कहा जाता है कि – अगिल खेती आगे-आगे, पाछिल खेती भागे जागे…।
मतलब सभी को मालूम है … खेती में सफलता तभी मिलती है, जब उसका सब काम समय पर किया जाए। विलंब से करने पर यदि कुछ प्राप्त हो जाए तो भाग्य। और यह बात राजनीतिक हलकों के जानकार भली भांति जानते हैं तभी तो वे चुनावी वर्ष से पूर्व वर्ष में ही ‘‘बीजारोपण’’ कार्य आरंभ कर तैयारियों में जुट गए थे… मगर ऐन वक्त पर टिकट कट गया और अब गीत गा रहे हैं – ऐकला चालो रे…।