आकाओं के रवैये से खफा होकर कुछ टिकट आशार्थी झुंड से जुदा चल पड़े हैं। राजनीतिक यात्रा में बेटिकट चलना गवारा नहीं सो वे अपनी टिकट से निर्दलीय यात्री बन गए हैं । हालांकि ऐसे संकेत ऐसे नेताओं और उनके समर्थकों ने टिकट कटने से पहले ही दे दिए थे लेकिन भला झुंड की चिल्लपौं में आवाजें सुनता कौन है? जीत का विश्वास मन में लिए उनकी गुनगुनाहट साफ सुनाई दे रही है : जीत जाएंगे हम तू (जनता) अगर संग है… चुनाव (जिंदगी) एक नयी जंग है…। बगावत पर उतारू और हर पार्टी में जाने के बाल अपनी निष्ठा की कसमें खाने वाले अब बोलते सुने जा रहे हैं कि यदि टिकट की दौड़ में एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति बनी रहती है तो निश्चित रूप से लगभग हर सीट पर तमाम पार्टियों से बेटिकट हुए जनाधार रखने वाले हमारे कई साथी निर्दलीय ही विधानसभा में जा विराजेंगे। और सच मानिए कि ऐसा होता है और हम निर्दलीय 15-20 सीटें भी जीत लेते हैं तो कुर्सी के पावे हमारे बिना नहीं टिक सकेंगे।
कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों में टिकट की जुगाड़ नहीं हो पाने का मलाल मन में लिए वे ख्वाब भी संजोने में जुटे हैं कि तीसरा मोर्चा और वे 15-20 निर्दलीय मिलकर इस स्थिति में होंगे वे जिस ओर नजर उठा कर देखें, उन्हीं की जय-जयकार गूंजती सुनाई दे। वे जिस ओर इशारे में भी ओके कह दें तो कुर्सी उसी और जम जाए। फिलहाल तो चुनावी प्रक्रिया जारी है । कुर्सी मजबूत है यानी लोकतंत्र मजबूत है। लोकतंत्र में दलों का राज करना ही अनिवार्य नहीं है। निर्दलीय भी अपना संख्या बल दिखा देते हैं तो उनका पलड़ा ऊपर ही रहेगा। ऐसी स्थितियां राजनीति में एक दो बार नहीं कई बार जनता देख चुकी है। खासतौर से विधानसभा चुनावों में । और इस बार हवा किसी पार्टी की ओर नहीं बह रही।
मतदाताओं का रुझान स्पष्ट होकर सामने नहीं आया है। ऐसे में जनाधार ही जन नेता का आधार बनेगा। यह कयास राजनीतिक क्षेत्र के जानकार लगाते हुए इस आशंका से इंकार नहीं कर सकते कि दोनों प्रमुख दलों के विरोधियों के दलों का गठबंधन तीसरा मोर्चा भी यदि वांछित सीटें नहीं ले पाता और निर्दलीय कुछ सीटों पर जम जाते हैं तो सत्ता की कुर्सी का रंग सतरंगी बन जाएगा। फिलवक्त जबकि पार्टियों की प्रत्याशियों के अंतिम सूची जाहिर होने में समय नहींं बचा है तब भी लगभग प्रत्येक सीट पर एक एक पार्टी के कम से कम तीन तीन प्रत्याशियों को दावेदार माना जा रहा है । और यही स्थिति निर्दलीय उम्मीदवारों के मैदान में खम ठोक कर उतरने का संकेत दे रही है ।
जिसे मजबूत करते हुए कुछ सामाजिक जातिगत आधार रखने वाले नेताओं के समर्थकों ने अपने अपने नेताओं को राजनीतिक दलों से टिकट पाने का हकदार बताते हुए दलों के लिए चेतावनी तक जारी कर दी है कि दलों द्वारा टिकट न मिलने पर समाज संस्थाएं अपने नेताओं को निर्दलीय खड़ा करेंगी। ऐसे में हम देखेंगे – निर्दलियों की ओ के के सहारे टिकी हुई मगर हर समय डगमगाती हुई कुर्सी