ये क्या हुआ  ! बिन बादल चमकी बिजली और कांधे धनुष, हाथ में बाना,  दिल्ली चल पड़े सुलताना ?

ये क्या हुआ  !

अचानक हवाएं बदल गईं, तापमान में उतार-चढ़ाव होने लगा ! लेकिन बादल नदारद हैं । मुफ्त के सिवाय न कुछ भा रहा है न कुछ लुभा रहा है।  हां, चुनावी मौसम में रेवड़ियों की रेहड़ियों से बाजार सजने लगे हैं । ऐसी रेहड़ियों से सत्ता में पद पाने की मिल रही लालीपॉप थामे नेताजी कोप-भवन से निकल कर जन-जन के बीच पहुंचने लगे हैं। ऐसे में लोग कहने से चूक नहीं रहे कि –  कांधे धनुष, हाथ में बाना,  दिल्ली चले सुलताना ?  पहले जहां नौबत बागियों से हाथापाई की दिख रही थी वहां अब मान-मनौवल के गीत सुनने में आ रहे हैं। हवाएं दिशा बदल-बदल कर कभी हाथ तो कभी कमल दल लहराती लगती हैं कि तभी भितरघात की खबरें फिर मौसम के रंग बदल देती हैं।
ऐसे में खुशामद-बाजार भी खूब चहलपहल वाला हो चुका है। खुशामद करने के लिए भी लोगों की वास्तविक योग्यता सीमा पार कर अलंकृत करने का प्रचलन नया नहीं है। जब ऐसी बातों का खुलासा होता है तो स्थिति हास्यास्पद भी हो सकती है तो आशंका उत्पन्न करने या ढोल की पोल खोलने वाली भी। इन सबसे इतर, लुभावनी-बोली भी सुनाई दे रही है जैसे कि हमारे राजस्थान में जहां दलों ने बिजली बिलों के प्रतिमाह वितरण पर खामोशी ओढ़े रखी वहीं वहीं रखी वहीं तेलंगाना में कांग्रेस ने मंदिर मस्जिद चर्च को बिजली मुफ्त देने की घोषणा कर दी । उधर, छत्तीसगढ़ के एक वकील राजस्थान की कंपनी पर कोयला महंगा खरीदने का आरोप लगा कर मौसम को और गरमा दिया। हम लोग भूलते बहुत जल्दी है। अभी कुछ ही माह पहले तक सोशल मीडिया पर की जा रही पोस्टों में बिजली बिल दो दो दो महीने से आने पर सरकार और बिजली वितरण कंपनियों की ओर से निर्धारित बिजली की दरों के मुताबिक बिजली को कम खर्च करने वालों को वांछित लाभ नहीं मिल पाने का मलाल रहा। और सरकार से यह मांग की गई कि बिजली बिल प्रतिमाह वितरित किए जाएं।  ताकि तय दरों के मुताबिक कम बिजली खर्च करने पर जनता को लाभ मिल सके।
उस पर तो सत्ताधारी और विपक्षी  दलों ने कुछ सोचा नहीं। जबकि इधर चुनावी मौसम के गरमाने के बावजूद कांग्रेस द्वारा यहां नहीं, वहां तेलंगाना में बिजली मुफ्त देने की घोषणा करने की बात यहां के मतदाताओं को अखर रही है। हवाएं बदलने के सबब को लेकर चर्चा है कि बड़न ( नामदारों और कामदारों) की बात बड़े ही  पहचाना ।
घोषणाओं का मर्म और सच तो वक्त बताता है। यूं यह सच है कि असत्य कथन और अपूर्ण कथन दोनों से असमंजस पैदा होता है। गलतफहमी होती है। भ्रमवश कही गई बातें भी परेशानी का सबब बनती है। दिखने में कुछ और असल में कुछ और के लिए रंगा सियार की कथा तो प्रचलित है ही। सियार से जुड़ी एक कथा और भी है जिससे कहावत प्रचलित हुई, बड़न की बात बड़े पहचाना। दरअसल पूरा जुमला तो है –
कांधे धनुश, हाथ में बाना, कहां चले दिल्ली सुलताना ?
बन के राव विकट के राना, बड़न की बात बड़े पहचाना
इसके पीछे कथा यूं है कि – जंगल में सियार ने एक धुनकर को धुनौता और धुनकी लिए जाते देखा तो उसे सिपाही समझ डर गया। उसे खुश करने के लिए सुलतान कह डाला। धुनकर ने भी उसे सिंह समझ कर सम्मान दिया और बन का राव संबोधित किया। इस कथा की उपादेयता वर्तमान में क्या है, रामजी जानें।
लेकिन लोकरंग में यह गहराये हुए रंगों में से एक है। इस सत्य की परिचायक भी कि ऐसे रंग हवाएं बदलने या मौसम के उतार चढ़ाव से फीके नहीं पड़ते।

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