अल्लै…कार्यकर्ता तो काम ही करते रह गये, चुनावी टिकट तो नेताजी लेकर खड़े हो गये। कार्यकर्ता तो पार्टी आलाकमान की फूल-सी बातों में (ब) महकते रहे और ऐन मौके पर खाली हाथों को मलते रह गए।
कथनी और करनी का ऐसा अंतर जनता के लिए तो कोई नई बात नहीं । लेकिन राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता ही अपने आलाकमान (नों) की कथनी में क्रियान्विती के समय इतना बड़ा अंतर देखकर हैरान परेशान हो गए हैं । खबर यह भी उड़ी कि एक केंद्रीय मंत्री अपन किसी अधिकारी के परिवारजन को टिकट के लिए किसी मंत्री का टिकट कटवाने का जोर लगाते रहे। फूल और हाथ वाले दलों के कुछ बागी तेवरों वाले कार्यकर्ता तो प्रदर्शन कर कहने लगे हैं कि टिकट लेने (हथियाने) वालों, जीत कर दिखा दो। यानी अपनी पार्टी को ही चैलेंज कर रहे हैं । और पार्टी अपनी पहले कही हुई सभी बातों को एक थैली में बंद करके अलमारी के किसी कोने में रख चुकी है । जैसे जनता से पिछले चुनाव में किए गए वादों की गठरी कहीं पड़ी धूल चाट रही है । वह वादे जिनमें दोनों प्रमुख पार्टियों ने सपने दिखाए थे ।
सत्तासीन भाजपा ने कालाधन वापस लाने के, भ्रष्टाचारियों को सबक सिखाने के और भी बहुत कुछ । और यह सब बातें बातें ही रह गई। चुनाव फिर सिर पर खड़े हुए । इस बीच पार्टी आलाकमानों द्वारा कार्यकर्ताओं को यह कहा जाता रहा था कि उनके यहां काम करने वाले को आगे बढ़ाया जाता है। पार्टी में पक्षपात नहीं होता। वंशवाद से तौबा कर ली है। लेकिन अब लिस्ट जाहिर हो चुकी है । कई काम करने वाले मंत्री तक बाहर हो गए हैं तो कुछ कार्यकर्ताओं की मांग को अनदेखा करके 80 – 85 वर्ष के नेताओं को टिकट थमा दिए गए हैं।
वंशवाद की जड़ें सूखने से बचाने के प्रयास भी खबरों में रहे। जबकि भाजपा प्रमुख रूप से यह कहती रही कि युवाओं को अवसर मिलना चाहिए । उधर कांग्रेस ने भी कुछ इसी तरह की बात की। भाजपा के नेता तो यह तक कहने से नहीं चूक रहे थे कि उम्रदराज वरिष्ठ नेताओं के मार्गदर्शन में युवाओं को आगे बढ़ाया जाए। वही पार्टी अपने उन्हें वरिष्ठतम उम्रदराज नेताओं को टिकट थमा कर कार्यकर्ताओं के लिए एक “मिसाल” बना रही है। कार्यकर्ताओं के लिए यह अचंभे वाली बात है और इसीलिए तैश में आकर रोष प्रकट करते हुए कार्यकर्ता यह भावनाएं प्रकट कर रहे हैं कि उनके क्षेत्र में पैराशूटी या अनचाहा प्रत्याशी जीत नहीं सकेगा। यानी कार्यकर्ता पार्टी प्रत्याशी के सहयोग से ही पीछे हटने की बात संकेतों में कर रहे हैं। पार्टियों के लिए यह चुनौती की बात है। खासतौर से सत्ता पर काबिज पार्टी, जिसे नोटबंदी और जीएसटी जैसे “साहसिक” कदमों के लिए पहले से ही चुनावी माहौल में चुनौतियां मिल रही है।
इसके परिणाम संभावित ना ना निकल सकें। उधर विपक्ष में बैठकर कार्यकर्ताओं के दम पर फिर से अपने पक्ष में माहौल बनाने वाली कांग्रेस भी कई सीटों पर ऐसी टिकटें काट चुकी है और ऐसी टिकटें जारी कर चुकी है जिससे कमोबेश कई कार्यकर्ता हाथ मल रहे हैं । अब देखना यह होगा कि दोनों प्रमुख राजनीतिक दल बागियों को कैसे संभालते हैं। जबकि अब गली-गली पार्टी के लिए भाग-दौड़ करने करने वाला कार्यकर्ता पार्टी की गाइडलाइन के मुताबिक मत बटोरने के लिए प्रतिबद्ध है। उसे यह भी मालूम है कि पार्टी भी अपनी गाइड लाइन लाइन पर ही प्रतिबद्ध है मगर चुनाव में जीतने वाले को खड़ा करने के लिए वह अपनी प्रतिबद्धता को थोड़ा नरम गरम कर लेती है।
राज की कुर्सी पर बिराजे शीतल कक्षों से शहर में तेज धूप से झुलसते कामगारों को निहारने वालों की भी मर्जी की बात है, योजना ऐसी बना सकते हैं कि 34 रुपए रोज कमाने वाला गरीबी की रेखा से ऊपर जीने लगे। उसी आदमी के नुमाइंदों/नेताओं के लिए ऐसे केंटीन या होटल निर्मित करा देंगे कि एक टी-सैट मंगवाओ, ढाई हजार रुपए बिल चुकाओ। बड़े बुजुर्ग कहते हैं, पुरातन काल से राज के काज ऐसे भी चलते रहे है, गरीबों के लिए भंडारे भी खुलते रहे हैं और अकाल में काम देकर गरीब के हाथों गढ़ों के गढ़ भी बनाए जाते रहे हैं।
राज काज चलाने के तरीके बदल गए, दरबार सदनों में समा गए, सदन नेताजी के बैडरूम के ठीक बाहर लगने लगे लेकिन गरीब की झोपड़ीं बरसात आने पर टपकने से मुक्ति नहीं पा सकी। झोपड़ी के बाहर बस्ती में 40 लाख की सड़क बन गई और उस सड़क में चमकते डामर की कालिख पता नहीं किन किन चेहरों को भी पोत गई। लोग कहते रहे, हमारी बस्ती में दो लाख लगाकर हमें पेयजल मुहैया करा दिया जाए लेकिन बजट नहीं है कहने वाले कुर्सी के बंदों ने दो करोड़ की लागत से आधुनिक विज्ञान पार्क खड़े करवा दिए, वो भी टिकट लेकर दिखाने के लिए। और तो और प्रबुद्ध वर्ग से जुड़ी कला संवर्द्धन की योजनाओं में भी एक करोड़ की लागत से निर्मित होने वाली रंगस्थली करोड़ों बहा देने और सालों गवा देने के बाद भी आंदोलन का बायस ही बनी रही।