आपको बता दूं कि महंगाई को गुड़ की कीमत की तराजू पर आज ही नहीं बल्कि 18 वीं शताब्दी के आखिरी दशकों में भी तौला जाता था। 1885 में गुड़ एक रुपए में दस सेर मिलता था इसकी जानकारी कहावत कोश में एस डब्ल्यू फैलन की कलम से मिलती है। उस समय में गुड़ एक रुपए का दस सेर मिलता था और इससे भी सस्ता किसी को मिल जाए तो वाह वाह!
हेयर कटिंग सैलून पर बाल कटवाने के लिए अपनी बारी के इंतजार में बैठे बैठे कैंची चलाते छेदीलाल की ज्ञानवर्धक बातें सुनने के अलावा हमारे पास दूसरा कोई चारा भी नहीं था। ऊपर से छेदीलाल को जवाब देने वाला मोहल्ले का नेता पप्पू भी लाइन में था। वह बोल पड़ा, सही कहा तुमने छेदी, बाजारवाद तब नहीं भी होगा मगर कीमतें बढ़ने घटने का प्रभाव तो समाज पर पड़ता ही था यह तय है और भावनाओं का व्यापार भी होता रहा है।
आज भी संवेदनाओं पर बाजार हावी है। जैसे राजनीति में सत्ता की कुर्सी सर्वोपरि। मुझे उनकी बातों से सिर चकराता-सा लगा। वे बोले जा रहे थे – चुनावी माहौल में चहुं ओर नेताओं के चेहरे चमक रहे हैं और गूंज रहे हैं उनके मीठे बोल। महंगाई के बोझ तले दबे गरीब को महलों के सपने दिखाने का सिलसिला फिर जोर पकड़ चुका है जो कभी भी थमता नहीं है।
पप्पू सांस लेने को रुका तो छेदी ने अवसर लपक लिया, बोल पड़ा – आम आदमी भी नेताओं ऐसी चालों को बखूबी समझ गया है और इसी वजह से किसी वस्तु की कीमतें यकायक बढ़ा दिए जाने पर बोल उठता है… बारह रुपए बढ़ाए हैं तीन रुपए कम कर देंगे और कहेंगे अच्छी भई, गुड़ सत्तरह सेर। यानी सस्ताई का जमाना ले आए। जैसे पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ाए तो दनादन और घटाने के नाम पर 1 पैसा, 7 पैसा…!!! लेकिन आज-कल जनता नेताजी के लोक लुभावने बोलों से मुस्कुराते गुड़ को देख चिंतित हो गई है कि नेताजी को महंगाई की याद कैसे दिलाई जाए ?
क्योंकि नैताजी तो अपने भाषणों और चुनावी वादों में महंगाई को “गुल” कर हर सुख-सुविधा मुफ्त देने की घोषणाएं करते थक नहीं रहे। मैं भी उन दोनों की बातों के रस में डूब गया था और विचारने लगा कि हेयर कटिंग सैलून वाले छेदीलाल को यह चिंता खाए जा रही है कि अब “मूंडने” का हुनर भी उनका न रहा, नेता ही मूंडने लगे! वे कह रहे थे, यह नेता लोग हमारी जेब खाली करके ही तो हमें मुफ्त सुख सुविधाएं देने की सोच रहे हैं।
राज के काज या सेठ साहूकारों के निज कार्यों के अलावा बाजार में समर्थ लोग असमर्थ का शोषण भावनाओं की कीमत तय करके ही कर पाते हैं। यदि कोई असमर्थ नहीं है तो कितना भी समर्थ उसका शोषण नहीं कर सकता। महंगाई भी आर्थिक रूप से कमजोर और अधिक आय अर्जित कर पाने में असमर्थ को ही अपनी चपेट में लेती है।
इसीलिए श्रमिक संघ और श्रमिक नेता एकता का आह्वान करते हुए मजदूर वर्ग को समर्थ बनने के लिए संघर्ष का संदेश देेते हैं। छेदीलाल जी की बात सही है, गुड़ सस्ता हो या महंगा, गुड़ तो गुड़ है और गुड़ हमेशा मीठा ही होता है।
और… कहावतों में गुरु गुड़ ही रहा चेला शक्कर बन गया भले ही कहा जाता हो लेकिन बाजार में चीनी की कीमतों के मुकाबले गुड़ की कीमत सुर्खियों में रहती है। तभी तो चुनावी समर में नेताजी ने गुड़ को हंसा कर महंगाई को गुम कर दिखाया!