श्रद्धा, आस्था, निष्ठा किसी जाति से बंधी नहीं रहती – आचार्य श्री विजयराज जी म.सा.
बीकानेर। श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. ने कहा है कि शास्त्रों के श्रवण से साता (सुख) का उदय होता है। शास्त्र श्रवण से सिद्धांत में श्रद्धा आती है। पुरुषार्थ में विवेक और प्रतिकूलता में धैर्य आता है। यह तीन बातें हमारी सम्यक दृष्टि का प्रतीक बनती है। शास्त्र श्रवण करते-करते सम्यक दर्शन की प्राप्ती होती है। दर्शन से श्रद्धा होती है और  इससे सिद्धान्त बन जाता है।  जो व्यक्ति चाहे वह किसी भी कुल का हो, जाति का हो या वंश का हो, श्रद्धा जिसमें होती है,  फिर  जाति बंधन के यह तत्व उसमें नहीं रहते। श्रद्धा, आस्था, निष्ठा किसी जाति से बंधी नहीं रहती है, यह तो अंतरंग का विषय है।
दान में, धर्म में आस्था रखने की बात श्रावक-श्राविकाओं से कहते हुए महाराज साहब ने कहा कि एक अजैन व्यक्ति अपनी कमाई से हर महीने कुछ अंश निकाल सकता है और उससे शास्त्र- साहित्य की पुस्तकें खरीदकर वितरण करता है, इसलिए कि प्रवचन के प्रचार- प्रसार से ज्यादा से ज्यादा लोग लाभान्वित हों, तो क्या जैन समाज का व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता। अजैन व्यक्ति यह सब इसलिए करता है कि कोई इन्हें पढक़र अपने में छोटा सा परिवर्तन लाता है तो कितना बड़ा काम हो जाता है। यह भावना हम सब में होनी चाहिए। संत और सिद्धान्त के प्रति हमारे अंदर श्रद्धा का भाव होना ही चाहिए। आचार्य श्री ने कहा कि संत और सिद्धान्त यह दोनों अलग नहीं हैं। संत ही सिद्धान्त हैं और सिद्धान्त ही संत है। इसलिए संत में श्रद्धा होनी चाहिए। आचार्य श्री ने बताया कि श्रद्धा से ही सबकुछ संभव है, श्रद्धा हो तो पैसा खर्च होता है। कई लोग सोचते ही रहते हैं और उनसे दान-धर्म में पैसा खर्च नहीं होता, वह केवल सोचते ही रहते हैं।
जिसमें पाप का डर वही सम्यक श्रद्धा वाला
आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. ने फरमाया कि जिसके भीतर में पाप के प्रति डर होता है, वही सम्यक श्रद्धा वाला होता है।  श्रद्धा तीन प्रकार की होती है एक उत्तम श्रद्धा  दूसरी मध्यम श्रद्धा और तीसरी सामान्य श्रद्धा होती है। उत्तम श्रद्धा वह जो पाप करे नहीं और करते देखे नहीं, शास्त्र की आज्ञा नहीं, भगवान की आज्ञा के विरुद्ध नहीं जाना की भावना मन में रखता है। दूसरे प्रकार की श्रद्धा मध्यम श्रद्धा है, जिसमें  समाज के डर से पाप ना करे, कलंक ना लगे, इसलिए पाप से बचना है। तीसरी श्रद्धा सामान्य श्रद्धा है जिसमें सरकार का डर रहता है। जो सजा के डर से पापकर्म नहीं करता है।
जीवन में रहती है अनुकूलता- प्रतिकूलता
आचार्य श्री ने बताया कि व्यक्ति के जीवन में हर समय अनुकूलता या प्रतिकूलता नहीं रहती है। सुख-दुख जीवन में बना ही रहता है। दुख आता है और चला जाता है, सुख का बादल भी छा कर ढल जाता है। यह दुनिया सुख-दुख की छांव है जो आती और जाती है। सुख और दुख जीवन के दो भाग हैं, यह पूर्व जन्म के फल भी हैं। इसलिए इस जन्म में सुख के बीज बोने चाहिए, इससे आगे का भव सुधरता है।
तू छोड़ सके तो छोड़ दुनिया दुखकारी
प्रवचन से पूर्व महाराज साहब ने भजन मन में हो जिसके प्रेम अपार, वाणी में बहती अमृत की धार, यही जिन्दगानी है, क्यों तू भूल रहा, गुण की निशानी है क्यों तू भूल रहा, और प्रवचन विराम से पहले तू छोड़ सके तो छोड़ दुनिया दुखकारी, तू धार सके तो धार संयम सुखकारी सुनाकर भजन के माध्यम से जीवन का सार बताया।
तपस्या, तेला और बेला करने का दिया आशीर्वाद
श्री शान्त-क्रान्ति जैन श्रावक संघ के अध्यक्ष विजयकुमार लोढ़ा ने बताया कि आचार्य श्री ने सभी श्रावक- श्राविकाओं से तीन दिन तक तेले की अराधना का लक्ष्य रखने की बात सभा में कही, साथ ही स्वर्गीय मोहनलाल बांठिया को संघ का आधार स्तम्भ बांठिया परिवार द्वारा बनाए जाने की घोषणा पर सभा में बहुमान किया गया। वहीं श्रीमती किरण तातेड़ ने 51 की तपस्या के पच्चक्खान किए और महाराज साहब से आशीर्वाद लिया।