अलगाव की भावना या विरोध की लहरें डराने-धमकाने या पक्षपात से पैदा होती है। और हैरानी तब होती है जब न्याय करने वालों पर ही अन्याय करने की बातें सुनाई दे जाएं! कोचिंग क्लासें लगाने वाले शर्मा जी की बातें हम सभी मोहल्ले वाले चौक में बैठे सुन रहे थे। उनकी बात को आगे बढ़ाया अॉटो वाले अहमद ने, बोला – आम जनता के साथ साथ हम ख़ुद इसलिए हैरान हैं कि न्यायाधीशों तक को डराने की बातें कही गई और न्यायाधीशों को ना डरने के लिए हिम्मत हमारे पीएम ने बंधाई ।
हम कैसे चुप्पी साधे रहते, हमने भी टिप्पणी की – हां, वो भी सार्वजनिक चुनावी सभा में ! यह बातें जब टीवी पर देखी सुनी और अखबारों में पढ़ी तो जनता के साथ हम खुद सकते में है। शर्मा जी ने झुरझुरी लेते कहा – हमें मानो करंट सा लगा। क्या हम ऐसे युग में जी रहे हैं जिस युग में पानी ढलान की ओर बहता नहीं बल्कि चढ़ाई की ओर ऊपर चढ़ रहा है। यदि ऐसी अनीति पूर्ण बातें और भी सामने आएं तो समझो घोर कलयुग आ ही गया है । और वह भी इस धरा पर। लोकतंत्र के सबसे बड़े राष्ट्र में ।
अहमद तैश में बोला – राजनीति में किसी क्षेत्र की आवश्यकता को दरकिनार कर अपने आदमियों के इलाके को हराभरा करना या अपने अयोग्य आदमी को प्रतिष्ठित करने के लिए किसी की योग्यता की अनदेखी करने के किससे तो बहुत सी बात सुने हैं अपने शहर में भी देखे हैं आप ने भी अपने-अपने शहरों में ऐसे किस्से सुने या प्रकरण देखे होंगे। हमने सुर मिलाया – जी हां, जी। इसे कुनबापरस्ती भी कहा जा सकता है तो चमचों को कड़ाहे का प्रसाद मिलना भी कह सकते हैं। पंचवर्षीय मुहूर्त के अनुसार जीवनयापन करने वाले चुनावी दंगल में ऐसे अनुभव बांटते रहते हैं। अब तक नाबालिग रहे युवा साथी जो कानूनन मतदान के अधिकारी हो गए है लेकिन अभी तक अंधों को शीरनी बांटते नहीं देख सके थे वो अबकी बार देख ही रहे होंगे।
शर्मा जी ने मानो सार बताया – लेकिन यह बहुत ही चिंता की बात है कि न्याय करने करने वालों को भी डरा धमकाकर अपने अंकुश में रखने की कोशिश कतिपय लोग कर रहे हैं। ऐसा कोई भी कर रहा है वह देश के लिए और लोकतंत्र के लिए कतई उचित नहीं है। और हमारे लिए यानी हम सभी आमजन के लिए तो बिल्कुल ही ठीक नहीं है। देर रात तक हमारे चौक में ऐसी चर्चाएं चलती रही और हम जब थक हार गए, ठंड बढ़ गई तो एक दूसरे से विदा लेकर अपने अपने घरों में जा पहुंचे, सो गए। अचानक टीवी पर फ्लैश में ब्रेकिंग न्यूज चमकने लगी… चुनावी सभा में लोगों ने नेताओं को बोलने नहीं दिया…. चुनावी घोषणा पत्र के साथ गारंटी और वारंटी की मांग पर अड़े रहे लोग। ओह… ओह… ! गजब का समाचार है।
लोगों में जागरूकता इस कदर आ गई है कि आईएसआई और ट्रेड मार्क की तरह चुनावी घोषणा पत्र भी मय मार्का और गारंटी के मांगे जाने लगे हैं। भाई, हमें तो यकीन नहीं हुआ। होता भी कैसे? हम नींद में जो थे। सपना देख रहे थे । हां, कभी तसव्वुर में जरूर ऐसे नजारे किए लेकिन यथार्थ में नहीं। नींद में हैं हम… जाग – जागे…से हैं ! चुनावी भाषण और चुनावी घोषणाओं के प्रति लोगों की तरह ही अपुन का भी मोह भंग हो चुका है। खाली-पीली सुनहरे ख्वाब देखने से अच्छा है… जागते हुए, यथार्थ से सामना करना।
मरीचिकाओं को केनवास पर ही देखने की आदत डालना। ऐसी नौबत न आने देना कि न्याय को ही अन्याय सताने लगे। चुनाव होंगे ही, मतदान करना ही है…। फिर भला खुद दलीय घोषणाओं पर क्यों न मंथन कर उचित प्रत्याशी को जिताया जाए…। हां… हां… यही ठीक रहेगा…। इस निर्णय ने मानो राहत दी। उठ बैठे हम। यानी जाग गए।