आज-कल राजनीतिक दल किसानों के ऋण माफ करने की घोषणाएं कर रहे हैं। अच्छी बात है । किंतु वित्तीय मामलों के जानकारों के अनुसार आज न अमानी है न इजारा, फिर किसानों पर इतनी मुसीबत क्यों, उन्होंने तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा । लेकिन अब, जब मुसीबत टूट ही पड़ी है तो उसका सामना करने के लिए किसान का साथ देना मानवीयता के लिए अनिवार्य है।

जानकारों के लिए यह नई जानकारी नहीं है कि बीते कालखंड में जिस जमीन की मालिक सरकार होती थी उसे अमानी कहा जाता था। ब्रिटिश सरकार किसान से लगान सीधे ही वसूलती थी। किसान को अमानी का लगान देना होता था। जबकि जमींदार के मालिकाना हक की जमीन के लिए किसान को इजारा का लगान देना ही होता था। यानी सरकार को लगान देना कुछ सुविधाजनक रहा होगा और जमींदार को लगान न चुका पाने पर किसान की दुर्दशा को हम तथ्यों के माध्यम से जानते ही हैं। फिर यह भी नहीं भुलाया जा सकता कि आज किसानों की तरह ही ही ही पसीना बहाने वाले कुछ उद्यमी और परिवार भी ऋण चक्र में फंसे हुए हैं।

ऐसे उद्यमियों और ऐसे गरीब परिवारों के लिए भी कुर्सी पर बैठने को उद्यत राजनीतिक दलों को सोचना विचारना और घोषणा कर उसकी क्रियान्विती करनी चाहिए। जनता भूली है न राजनीतिक दल बिसार सकते हैं कि कुछ ही वर्ष पहले तक किसी सूदखोर के चंगुल में फंसा ऋणी निचोड़ लिया जाता था। हालांकि जागरूकता के कारण ऐसे प्रकरणों पर अब समाज और सरकारी प्रयासों से किसी हद तक अंकुश लगा है मगर तू डाल डाल मैं पात पात की तर्ज पर जरूरतमंद, लाचार, गरीब का खून चूसने वाले अपने स्तर पर तरीके भी ईजाद कर ही लेते हैं।

थानों-कचहरियों में ऐसे मुकदमें आज भी देखे जा सकते हैं जिनमें परिवादी ऋणी दुहाई देता है, किस्तें चुका दी, ब्याज सहित मूल चुका दिया लेकिन वादी द्वारा खाता अभी भी चालू रखा गया है। तीन-चार वर्ष हुए होंगे तब ऐसे ही एक मामले का हवाला देते हुए इंटक से संबद्ध भारतीय राष्ट्रीय ट्रांसपोर्ट फैडरेशन के पदाधिकारियों ने आमजन से अपील की थी, निजी क्षेत्र में किसी से ऋण लेते समय अपने अधिवक्ता की सलाह जरूर लें। अक्सर दिल दुखाने वाली घटनाओं की पुनरावृत्ति से भी कहावतें बन जाती है।

मिसाल के तौर पर, अमानी अबादानी, इजारा उजाड़ा। भारत में ब्रिटिश काल के दौरान सर्वहारा पर राज और समाज के रुतबेदारों की ओर से कितने जुल्मो सितम होते रहे, यह इतिहास के पन्ने बताते हैं। जिन पर खींची गई लकीरें गहरी होती हैं और मिटती भी नहीं। उस जमाने में धरतीपुत्र को अपने खेत में हल चलाने के लिए लगान देना होता था और ‘‘देना ही होता था’’। दो तरीके थे, अमानी और इजारा।

इजारा के बोझ तले दबे किसानों के साथ दिल दुखाने वाली घटनाएं अक्सर होती रहीं और कहा जाने लगा, अमानी अबादानी, इजारा उजाड़ा। कहा यह भी जाता है कि बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि ले। लेकिन चिंता कि बात है कि आज भी सुनने में आ ही जाता है कि फलां राज्य में किसान ने आत्महत्या कर ली। ऐसी स्थिति फिर कभी न आए, यह सुनिश्चित करना राजनीतिक दलों की ही नहीं, हम सभी की जिम्मेदारी है।